बाल सुलभ राजा का मन....
अवश्य पढ़ें - संविधान आधारित लोकतंत्र को पूरी तरह उलट कर राजतंत्र की बहाली की सोची समझी योजना पर सुव्यवस्थित तरीके से हो रहा अमल!
नई दिल्ली/भारत। ( सबके सब लोकतंत्र की छाती पर पाँव रखे संविधान का बाजा बजा रहे, उधर राजा पर्यटन पर है। अभी तक 66 देशों का पर्यटन कर चुका है, इनमें से कई में अनेक अनेक बार की गयी यात्राओं का जोड़ शामिल नहीं है। इन दिनों वह धुंआधार देशाटन पर है। प्रमुदित, उत्फुल्लित, आल्हादित, बालसुलभ उत्साह से उत्साहित होकर दिन में 7 बार परिधान बदल रहा है।
राजतंत्र के जमाने के राजा एक ही मुद्रा में बैठकर तैलचित्र बनवाते थे, मरे हुए शेर के ऊपर पाँव रखकर फोटो उतरवाते थे। उन्हें की नक़ल करने की कोशिश में वह नारद स्वयंवर काण्ड दोहरा रहा है। कभी हाथ फैला कर अभिराम मुद्रा में पोज दे रहा है, कभी युवा उत्साही पर्यटकों की तरह सूरज को हथेली में लेकर तो कभी ऊंचे पर्वतीय शिखर पर हाथ रखकर फोटो सेशन कर रहा है। उसके अलावा फोटो फ्रेम में कोई और न आये इसके लिए बच्चों की तरह बिफर रहा है, नजदीक आने वालों को दुत्कार फटकार कर किनारे कर रहा है। देश और उसकी प्रजा भले किसी हाल में हो, घटना दुर्घटना, मौक़ा बेमौका हो या फिर काल या अकाल हो; राजा के लिए वह पर्यटन और नयी नयी पोशाकों के रैम्प शो और फोटो सत्रों का अवसर ही होता है।
राजा समय समय पर प्रजा को अपने राजत्व की याद दिलाता रहता है। उन्हें बताता रहता है कि वे उसका नमक खा रहे हैं - नमक की याद का कोहराम मचाने के लिए अपने चारण, भाट और दरबारियों को भी लगाए रखता है। हाथ नचाकर नचाकर; "कितने दूँ, 50 हजार करोड़? 70 हजार करोड़? चलो 75 हजार करोड़ दिए" कहकर वह यदाकदा अपनी दरियादिली भी दिखाता रहता है। बोलने को ढपोरशंख की तरह जितने मांगे जाते हैं उसका दोगुना बोलता है - देता अठन्नी भी नहीं है। मगर राजा सिर्फ मसखरा नहीं है, वह कटखना भी है। वह अपने पैने दाँतों से अब तक रचे बने सब कुछ की क़तर ब्यौंत कर देना चाहता है।
संविधान आधारित लोकतंत्र को पूरी तरह उलट कर राजतंत्र की बहाली की सोची समझी योजना पर सुव्यवस्थित तरीके से किया जा रहा अमल है। संविधान सहित सारी संवैधानिक संस्थाओं की ऐसी तैसी करके, उन्हें ख़त्म करना है। जिन्हे फिलहाल खत्म करना मुश्किल है उन्हें हास्यास्पद और दिखावटी बनाकर रख देना है। राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च संवैधानिक पद पर विराजी द्रौपदी मुर्मू जब देश के नागरिको को याद दिलाती हैं कि वे "गुजरात (गुजरात की जगह मोदी पढ़ें) का नमक खा रहे हैं" तब वे इसी आख्यान को आगे बढ़ा रही होती हैं।
जब विधि और न्यायमंत्री रिजिजू दावा ठोकते हैं कि "सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति करना सरकार का काम है' तब वे संविधान द्वारा स्थापित लोकतंत्र के तुलनात्मक रूप से स्वतंत्र स्तम्भ न्यायपालिका के ढाँचे को ढहाने के लिए फावड़े और बेलचे उठाने का एलान कर रहे होते हैं।
संसद अप्रासंगिक बना दी गयी है - उसकी बैठकें होती कम हैं टलती ज्यादा हैं। कानूनों को बनाने और बिना बनाये ही बदलने का काम लोकसभा और राज्यसभा के बाहर ही कर लिया जा रहा है। निर्वाचन आयोग को राजवचन - निर्वहन आयोग बनाकर रख दिया गया है - चुनाव की तारीखें अब राजा के पर्यटन कार्यक्रम की तारीखों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए निर्धारित की जाती हैं - बाकी फैसले भी उसी की भृकुटियों के उतार चढ़ाव को हिसाब में रखकर लिए जाते हैं।
आरएसएस के सरसंघचालकों ने भी हमेशा लोकतंत्र को मुंडगणना कहकर धिक्कारा और इसे अभारतीय प्रणाली कहकर स्वीकार करने से मना किया। वे और आगे बढ़ कर मुसोलिनी की इटली और हिटलर की जर्मनी को आदर्श बनाने तक पहुँच गए थे। अब सरकार में पहुँचने के बाद ठीक उसी दिशा - लोकतंत्र की समाप्ति और राजशाही के नए संस्करण की कायमी - में बढ़ने की मुहिम तेज की जा रही है।
सौजन्य: (Credit Fb. S K Sharma) (सभार)
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